भारत में परिसीमन पर नया विचार: समान प्रतिनिधित्व के लिए एक संवैधानिक समाधान

क्या भारत में परिसीमन की समस्या का हल एक संवैधानिक दृष्टिकोण से निकाला जा सकता है? जानिए कैसे मतदाता आधारित परिसीमन, मालएपोर्शनमेंट की समस्या को हल कर सकता है और साथ ही संविधान के मूल्यों जैसे भाईचारा, समानता और प्रतिनिधित्व को भी बनाए रखता है।

 

परिचय: परिसीमन की समस्या को समझना

भारत में परिसीमन (Delimitation) की बहस एक निर्णायक मोड़ पर पहुंच चुकी है। 1971 की जनगणना के आधार पर लोकसभा सीटों के निर्धारण को अब तक फ्रीज़ किए जाने से मालएपोर्शनमेंट की स्थिति उत्पन्न हो गई है। जिन राज्यों में जनसंख्या वृद्धि कम हुई है (मुख्यतः दक्षिण भारत), उन्हें ज़्यादा प्रतिनिधित्व मिल रहा है, जबकि अधिक जनसंख्या वाले राज्यों (मुख्यतः उत्तर भारत) को कम सीटें मिली हुई हैं।

अब जब अगली जनगणना के बाद परिसीमन का रास्ता खुलने वाला है, तो यह बड़ा सवाल है कि क्या सिर्फ जनसंख्या के आधार पर परिसीमन करना उचित होगा?

हाल की चर्चाओं में यह सुझाव सामने आया है कि परिसीमन का आधार जनसंख्या के बजाय मतदाताओं (Eligible Voters) की संख्या को बनाया जाए। यह सुझाव राजनीतिक दृष्टिकोण से भले ही व्यावहारिक लगे, लेकिन इसे संवैधानिक मूल्यों से जोड़ना ज़रूरी है।

 

मौजूदा परिसीमन प्रणाली में समस्या क्या है?

भारतीय संविधान की मूल भावना यह थी कि प्रत्येक जनगणना के बाद लोकसभा की सीटों की संख्या और राज्यों का प्रतिनिधित्व उसी के अनुसार बदला जाएगा। लेकिन 42वां (1976) और 84वां (2001) संविधान संशोधन इस प्रक्रिया को स्थगित कर चुके हैं, जिससे जनसंख्या नियंत्रण को प्रोत्साहन दिया जा सके।

इसका नतीजा यह हुआ कि उत्तर भारत की लोकसभा सीटों में अब कहीं ज़्यादा मतदाता हैं, जबकि दक्षिण भारत की सीटों में कम। इससे एक वोट का मूल्य अलग-अलग हो गया है, जो कि "एक व्यक्ति, एक वोट, एक मूल्य" के सिद्धांत के खिलाफ है।

 

दक्षिण भारत की चिंताएं: राजनीतिक आवाज़ खोने का डर

दक्षिणी राज्यों के नेताओं को डर है कि यदि अगली जनगणना के आधार पर परिसीमन हुआ, तो उनकी लोकसभा में राजनीतिक शक्ति घट सकती है। हालांकि केंद्रीय गृह मंत्री ने तमिलनाडु की सीटें घटने की आशंका को नकारा है (अहूजा 2025), लेकिन यदि सीटें बढ़ाई जाती हैं और दक्षिण की सीटें स्थिर रहती हैं, तो उनके प्रभाव में गिरावट आ सकती है।

यह भावना उत्तर भारतीय राजनीतिक प्रभाव से दक्षिण भारतीय राज्यों की दूरी को और बढ़ा सकती है।

 

मतदाता आधारित परिसीमन: एक वैकल्पिक प्रस्ताव

विदhi सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी और अन्य विशेषज्ञों (पांडा और शर्मा 2024; दुरई और श्रीनिवासन 2024) ने मतदाता संख्या के आधार पर परिसीमन करने का सुझाव दिया है। इससे:

मालएपोर्शनमेंट कम होगा,

जिन राज्यों ने बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा नीति अपनाई है, उन्हें लाभ मिलेगा,

कम जनसंख्या वृद्धि वाले राज्यों को दंडित नहीं किया जाएगा।

दुरई और श्रीनिवासन के अनुसार, मालएपोर्शनमेंट का अर्थ है—राज्य की कुल जनसंख्या और उसकी लोकसभा सीटों में असंतुलन। वोटर-आधारित प्रणाली इस अंतर को दूर कर सकती है।

 

परंतु क्या यह संविधानिक है?

वोटर आधारित प्रणाली व्यावहारिक हो सकती है, लेकिन इसे संविधान के प्रावधानों में टिकना भी ज़रूरी है। संविधान का अनुच्छेद 81 वर्तमान में जनसंख्या के आधार पर सीटों का निर्धारण करता है। "जनसंख्या नियंत्रण" के नाम पर किया गया परिवर्तन संवैधानिक रूप से मान्य नहीं हो सकता।

इसके बजाय संविधान में वर्णित "भाईचारा (Fraternity)" का सिद्धांत एक मज़बूत आधार प्रदान कर सकता है। 31वां संशोधन (1973) भी इसका प्रमाण है, जिसने 6 मिलियन से कम जनसंख्या वाले राज्यों के लिए अपवाद का प्रावधान रखा, ताकि छोटे राज्यों के हितों की रक्षा हो सके।

 

समानता और भाईचारे का संतुलन: एक संवैधानिक दृष्टिकोण

लोकतंत्र केवल बहुमत की सत्ता नहीं है, बल्कि यह विविधताओं का समावेश है। मतदाता-आधारित परिसीमन भाईचारे की भावना को बनाए रखते हुए समान प्रतिनिधित्व की ओर एक संवैधानिक रास्ता हो सकता है।

यह मॉडल न केवल वर्तमान संकट को सुलझा सकता है, बल्कि भविष्य के परिसीमन के लिए भी स्थायी ढांचा प्रदान कर सकता है।

 

आगे की राह: एक टिकाऊ और संवैधानिक परिसीमन मॉडल

भारत की परिसीमन प्रणाली में किसी भी बदलाव के लिए आवश्यक है:

मालएपोर्शनमेंट को दूर करना

संवैधानिक मूल्यों का सम्मान करना — समानता, भाईचारा और प्रतिनिधित्व

न्यायिक समीक्षा की कसौटी पर खरा उतरना

राजनीतिक और क्षेत्रीय विविधताओं को समावेशी बनाना

 

निष्कर्ष: राजनीतिक से संवैधानिक समाधान की ओर

परिसीमन में सुधार अनिवार्य है। लेकिन इसकी सफलता इस बात में है कि समाधान केवल राजनीतिक दृष्टिकोण से न देखा जाए, बल्कि उसे संविधान की मूल आत्मा से भी जोड़ा जाए। मतदाता आधारित परिसीमन, लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करता है, क्षेत्रीय असंतोष को कम करता है, और भारतीय संघवाद को मजबूत बनाता है।

 

बाहरी लिंक:

Economic & Political Weekly – दुरई और श्रीनिवासन (2024)

Vidhi Centre for Legal Policy

By Team Atharva Examwise #atharvaexamwise